Sunday, May 9, 2010

हाँ इजाज़त है अगर कोई कहानी और है
इन कटोरों में अभी थोड़ा सा पानी और है

मज़हबी मज़दूर सब बैठे हैं इनको काम दो
इक इमारत शहर में काफी पुरानी और है

ख़ामुशी कब चीख़ बन जाये किसे मालूम है
ज़ुल्म कर लो जब तलक ये बेज़बानी और है

ख़ुश्क पत्ते आँख में चुभते हैं काँटों की तरह
दश्त में फिरना अलग है बाग़बानी और है

फिर वही उकताहटें होंगी बदन चौपाल में
उम्र के क़िस्से में थोड़ी-सी जवानी और है

बस इसी अहसास की शिद्दत ने बूढ़ा कर दिया
टूटे-फूटे घर में इक लड़की सयानी और है


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