Sunday, May 9, 2010

maa -part 2


मेरे बच्चे नामुरादी में जवाँ भी हो गये

मेरी ख़्वाहिश सिर्फ़ बाज़ारों को तकती रह गई


बच्चों की फ़ीस, उनकी किताबें, क़लम, दवात

मेरी ग़रीब आँखों में स्कूल चुभ गया


वो समझते ही नहीं हैं मेरी मजबूरी को

इसलिए बच्चों पे ग़ुस्सा भी नहीं आता है


किसी भी रंग को पहचानना मुश्किल नहीं होता

मेरे बच्चे की सूरत देख इसको ज़र्द कहते हैं


धूप से मिल गये हैं पेड़ हमारे घर के

मैं समझती थी कि काम आएगा बेटा अपना


फिर उसको मर के भी ख़ुद से जुदा होने नहीं देती

यह मिट्टी जब किसी को अपना बेटा मान लेती है


तमाम उम्र सलामत रहें दुआ है मेरी

हमारे सर पे हैं जो हाथ बरकतों वाले


हमारी मुफ़्लिसी हमको इजाज़त तो नहीं देती

मगर हम तेरी ख़ातिर कोई शहज़ादा भी देखेंगे


माँ—बाप की बूढ़ी आँखों में इक फ़िक़्र—सी छाई रहती है

जिस कम्बल में सब सोते थे अब वो भी छोटा पड़ता है


दोस्ती दुश्मनी दोनों शामिल रहीं दोस्तों की नवाज़िश थी कुछ इस तरह

काट ले शोख़ बच्चा कोई जिस तरह माँ के रुख़सार पर प्यार करते हुए

----munawwar rana

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